अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा राजमहल में अपने कक्ष की सफाई कर रही थी। हाथ में झाड़ू लिए वह मन ही मन अपने विचारों में डूबी हुई थी। तभी उसकी ओर माता द्रौपदी धीरे-धीरे चली आईं। उनके चेहरे पर मातृत्व की कोमलता और अनुभव की गंभीरता झलक रही थी। द्रौपदी ने पास जाकर स्नेहपूर्वक उत्तरा के सिर पर हाथ फेरा और शांत, किंतु दृढ़ स्वर में कहा —
"पुत्री, जीवन में कभी भी, चाहे कैसी भी कठिन से कठिन विपत्ति क्यों न आ जाए, किसी भी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।"
उत्तरा यह सुनकर चौंकी। उसने आश्चर्य और जिज्ञासा से माता द्रौपदी की ओर देखा और धीरे से पूछा —
"माता, आप ऐसा क्यों कह रही हैं? क्या आपके जीवन में भी ऐसा कुछ हुआ था?"
द्रौपदी की आँखें अतीत की स्मृतियों में खो गईं। उनका स्वर भारी हो उठा —
"हाँ पुत्री, यह बात मैंने अपने जीवन से सीखी है। जब मेरे पाँचों पति — पांडव — कौरवों के साथ जुए के खेल में बैठे, तो वे अपना सब कुछ हार गए। राज्य, धन, प्रतिष्ठा — सब कुछ दाँव पर लगा दिया। अंततः, उन्होंने मुझे भी दाँव पर लगा दिया... और हार गए।"
उनकी आँखों में उस अपमान की पीड़ा झलकने लगी —
"फिर, दुर्योधन और उसके भाईयों ने भरी सभा में मेरा अपमान करने का प्रयास किया। मैं व्याकुल होकर अपने पतियों से मदद की गुहार लगाती रही, लेकिन वे सब मौन थे, सिर झुकाए बैठे रहे। उनके चेहरे पर लज्जा और असहायता थी। मैंने पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और राजा धृतराष्ट्र — सभी से सहायता माँगी, परंतु किसी ने भी मेरी ओर आँख उठाकर तक नहीं देखा। सभी अपनी-अपनी जगह बैठे आँसू बहाते रहे।"
द्रौपदी ने गहरी साँस ली, मानो उस दर्द को आज भी महसूस कर रही हों। फिर उनका स्वर दृढ़ हो गया —
"जब मुझे हर ओर से निराशा मिली, तब मैंने अपने मन से एक ही पुकार लगाई — 'हे माधव! हे कृष्ण! अब आप ही मेरे रक्षक हैं। आपके सिवाय मेरा कोई नहीं।' और जैसे ही मैंने यह पुकार लगाई, श्रीकृष्ण तुरंत मेरे पास आ गए और मेरी लाज की रक्षा की।"
द्रौपदी ने आगे कहा —
"उसी समय, द्वारका में बैठे श्रीकृष्ण भी अत्यंत व्याकुल हो उठे थे। उनकी प्रिय भक्त पर संकट का बादल मंडरा रहा था। रुक्मिणी ने उनसे पूछा — 'स्वामी, आप इतने व्याकुल क्यों हैं?' तब श्रीकृष्ण ने कहा — 'मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में अपमानित किया जा रहा है।' रुक्मिणी ने तुरंत आग्रह किया — 'तो आप अभी जाएँ और उसकी सहायता करें।'
लेकिन श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया — 'मैं तब तक नहीं जा सकता, जब तक द्रौपदी मुझे पुकारे नहीं। एक बार वह मेरा नाम लेगी, तो मैं पल भर में उसके पास पहुँच जाऊँगा।'"
फिर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को एक स्मृति सुनाई —
"तुम्हें याद है, जब पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था, तब मैंने शिशुपाल वध के लिए सुदर्शन चक्र उठाया था और मेरी उंगली कट गई थी। उस समय मेरी सभी रानियाँ वहाँ थीं — कोई वैद्य को बुलाने भागी, तो कोई औषधि लेने। परंतु, उसी क्षण द्रौपदी ने बिना देर किए अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और मेरी उंगली पर बाँध दिया। वह क्षण मेरे हृदय में अमिट है। उस दिन मैंने मन ही मन ठान लिया था कि इस उपकार का प्रतिदान अवश्य दूँगा।"
श्रीकृष्ण ने आगे कहा —
"आज वही अवसर है। मेरी भक्त संकट में है, और मेरा ऋण चुकाने का समय आ गया है। लेकिन जब तक वह मुझे स्वयं नहीं पुकारेगी, मैं उसके जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।"
और जैसे ही द्रौपदी ने अपने हृदय से श्रीकृष्ण को पुकारा, उन्होंने द्वारका से बिना विलंब किए, तत्काल वहाँ पहुँचकर अपनी माया से उसकी अस्मिता की रक्षा की।
द्रौपदी ने उत्तरा की ओर देखते हुए कहा —
"पुत्री, यही कारण है कि मैं कहती हूँ — जब भी संकट आए, सीधे प्रभु की शरण में जाना। संसार के लोग चाहे कितने भी अपने लगें, लेकिन कठिन समय में अक्सर मौन रह जाते हैं। भगवान ही ऐसे हैं, जो सच्ची पुकार सुनते हैं और दौड़े चले आते हैं।"
उत्तरा के मन में यह शिक्षा गहराई से उतर गई। वह नतमस्तक हो गई और मन ही मन यह संकल्प लिया कि जीवन में चाहे कैसी भी परिस्थिति आए, वह सदा ईश्वर का स्मरण करेगी।
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