गोकुल की गलियों में हल्की-हल्की ठंडी हवा बह रही थी। सुबह का समय था, और नंद बाबा का आँगन बच्चों की किलकारियों से गूंज रहा था। छोटे-छोटे बछड़े अपनी माँओं के पास दूध पी रहे थे, और गायों की घंटियों की मधुर ध्वनि पूरे वातावरण में गूँज रही थी। इस चहल-पहल के बीच नंदलाल, नन्हे कान्हा, अपनी मित्रमंडली के साथ आँगन के किनारे खेल रहे थे। मिट्टी के ढेर उनके छोटे-छोटे हाथों में भर-भर कर इधर-उधर उड़ रही थी, मानो वे भी कान्हा की शरारतों में शामिल हों।
यशोदा मैया रसोई में माखन मथ रही थीं। बीच-बीच में उनकी नज़र आँगन में खेलते कृष्ण पर पड़ती, जो कभी मिट्टी के ढेले बनाते तो कभी उन्हें अपनी हथेलियों में दबाकर देख हंसते। अचानक पड़ोस की गोपियाँ आईं और शिकायत करने लगीं —
"मैया! देखो, तुम्हारा लाला फिर से मिट्टी खा रहा है। हमने अपनी आँखों से देखा है, ये मिट्टी मुँह में डाल रहा था।"
यशोदा ने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, ये तो रोज की बात है। मैं समझा दूँगी इसे।"
लेकिन जब उन्होंने कान्हा को पास बुलाया और देखा कि उसकी होंठों के किनारों पर मिट्टी लगी है, तो उनका माँ वाला स्नेह थोड़ी चिंता में बदल गया।
"कन्हैया, तूने मिट्टी खाई है क्या?"
कृष्ण मासूम चेहरा बनाकर बोले, "नहीं मैया, मैंने कुछ नहीं खाया।"
"अच्छा, तो अपना मुँह खोल।"
कृष्ण ने धीरे-धीरे अपना छोटा सा मुँह खोला। यशोदा मैया झुककर देखने लगीं, लेकिन जैसे ही उन्होंने भीतर देखा, उनकी आँखें ठिठक गईं, सांसें थम गईं।
उन्हें कृष्ण के मुख में केवल मिट्टी नहीं दिखी — उन्होंने वहाँ पूरा ब्रह्मांड देखा।
नील गगन में चमकते असंख्य तारे, चंद्रमा और सूर्य अपने-अपने पथ पर विचरण करते हुए, महासागर की गहराइयाँ, ऊँचे-ऊँचे पर्वत, असीम वन, नदी-नाले, ऋतुएँ, सभी जीव-जंतु — और यहाँ तक कि वे स्वयं भी उस ब्रह्मांड में खड़ी थीं, कृष्ण को देख रही थीं।
क्षण भर के लिए यशोदा समय और स्थान से परे चली गईं। उन्हें लगा मानो पूरा संसार कृष्ण के मुख के भीतर समाया हुआ है। यह दृश्य इतना अद्भुत था कि उनकी देह सिहर उठी। एक ओर उन्हें भय हुआ कि यह कोई स्वप्न तो नहीं, और दूसरी ओर उनके हृदय में यह अहसास गूंजा कि उनका लाला कोई साधारण बच्चा नहीं, बल्कि स्वयं परमेश्वर है।
फिर अचानक, कृष्ण ने मुँह बंद कर लिया और वही पुराना मासूम चेहरा सामने था। यशोदा मैया की आँखों में आँसू आ गए। वे वहीं बैठ गईं, कान्हा को अपनी गोद में भर लिया, और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं,
"लाला, तू कौन है? जो मैंने अभी देखा, वह तो केवल कोई देवता ही दिखा सकता है।"
लेकिन अगले ही क्षण उनका मातृत्व जाग उठा। उनके लिए कृष्ण फिर वही उनका नन्हा बेटा था, जिसकी आँखों में शरारत और होठों पर मुस्कान बसी रहती थी। उन्होंने मन ही मन तय किया कि वे इस अद्भुत घटना के बारे में किसी से कुछ नहीं कहेंगी।
"जो भी है, तू मेरा लाला है। और मैं बस तेरी मैया हूँ," उन्होंने धीरे से कहा।
कृष्ण उनकी गोद में सिमट गए, मानो कह रहे हों —
"मैया, सब कुछ तुम्हारे प्रेम में ही है। ब्रह्मांड भी और मैं भी।"
उस दिन गोकुल में जीवन अपनी सामान्य गति से चलता रहा। गायें चरागाह में गईं, गोपियाँ अपने काम में लगीं, बच्चे खेलते रहे। लेकिन यशोदा मैया के मन में वह दृश्य हमेशा के लिए अंकित हो गया। उन्हें अब यह भली-भांति समझ आ गया था कि उनका नन्हा कान्हा, जो माखन चुराता है, जो बांसुरी बजाकर सबको मोहित करता है, वह कोई साधारण गोपालक नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है।
और इस प्रकार, एक साधारण सी लगने वाली घटना ने यशोदा को कृष्ण के अनंत स्वरूप का दर्शन करा दिया — वह स्वरूप जिसमें समय, स्थान, तत्व, और पूरा ब्रह्मांड समाहित है। लेकिन मातृत्व का प्रेम इतना गहरा था कि उन्होंने ईश्वर को भी केवल अपने पुत्र के रूप में देखा, और यही कृष्ण की लीला का सबसे सुंदर रहस्य था।
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