कभी गाँवों के सुनहरे दिनों में, जब किसान अपने बैलों के साथ खेत जोतते थे, तो हल खींचते समय यदि कोई बैल अचानक गोबर या मूत्र करने लगता, तो किसान तुरंत हल रोक देता और धैर्यपूर्वक बैल के नित्यकर्म पूरा करने तक खड़ा रहता। यह केवल एक आदत नहीं थी, बल्कि जीवों के प्रति गहरी संवेदना का प्रतीक था। आज जिन्हें हम अशिक्षित कहते हैं, वही किसान इंसानियत और करुणा में कहीं आगे थे।
उन दिनों का देसी घी इतना शुद्ध होता था कि यदि आज उसकी कीमत लगाई जाए तो दो हज़ार रुपये किलो से कम न हो। यही घी किसान अपने बैलों को विशेष दिनों में हर दो दिन बाद आधा किलो पिलाता, ताकि उनके साथी तंदुरुस्त और खुश रहें। यह रिश्ता केवल मालिक और पशु का नहीं, बल्कि दोस्ती और प्रेम का था।
खेत में टटीरी पक्षी अपने अंडे खुले मिट्टी पर देती थी। जब हल चलाते समय किसान टटीरी की चीख सुनता, तो समझ जाता कि कहीं अंडे दब न जाएँ। वह उस हिस्से को छोड़कर आगे बढ़ जाता। आधुनिक शिक्षा भले न थी, पर आस्था और संवेदनशीलता ने उन्हें प्रकृति का सच्चा मित्र बना दिया था।
दोपहर के विश्राम से पहले किसान सबसे पहले बैलों को पानी पिलाता और चारा डालता, फिर स्वयं भोजन करता। यह अटूट नियम था। जब बैल बूढ़े हो जाते, तो उन्हें कसाइयों को बेचना पाप और सामाजिक अपराध माना जाता। बूढ़े बैल को जीवनभर चारा खिलाया जाता और जब उनकी मृत्यु होती, तो किसान फफक-फफक कर रोता। उसके बच्चे भी उस मित्र की मौत पर आंसू बहाते, जिसने बरसों उनके पिता का साथ दिया था।
पुराना भारत शायद औपचारिक शिक्षा में आगे न रहा हो, पर उसकी संस्कृति, करुणा और रिश्तों का वैभव इतना महान था कि वहीं से जीवन का असली रस झरता था। वही भारत, जो करोड़ों वर्षों की सभ्यता को अपने जीवन व्यवहार में जीता था।
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