महाभारत केवल एक महाकाव्य नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, दर्शन और जीवन मूल्यों का दर्पण है। इस महाकाव्य में अनेक पात्र हैं, जिनमें से द्रौपदी का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण और विशेष है। द्रौपदी को पंचाली, कृष्णा और याज्ञसेनी के नाम से भी जाना जाता है। वह केवल पांडवों की पत्नी ही नहीं थीं, बल्कि एक ऐसी वीरांगना थीं, जिन्होंने अपने आत्मसम्मान, साहस और दृढ़ता से सम्पूर्ण महाभारत के घटनाक्रम को दिशा दी।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
द्रौपदी का जन्म द्रुपद राजा के यज्ञकुण्ड से हुआ था। राजा द्रुपद ने अपने शत्रु द्रोणाचार्य को पराजित करने के लिए विशेष यज्ञ करवाया। इस यज्ञ से दो संतानें उत्पन्न हुईं – धृष्टद्युम्न और द्रौपदी। धृष्टद्युम्न को द्रोणाचार्य का वध करने के लिए और द्रौपदी को महान कार्यों के लिए उत्पन्न माना गया। द्रौपदी का जन्म दिव्य था, इस कारण उन्हें "याज्ञसेनी" कहा जाता है।
द्रौपदी स्वयंवर
द्रौपदी के स्वयंवर का प्रसंग महाभारत में अत्यंत प्रसिद्ध है। उनके स्वयंवर में अनेक राजकुमार और योद्धा उपस्थित हुए। स्वयंवर की शर्त यह थी कि धनुष पर चढ़ाकर घूमती मछली की आँख में तीर मारना होगा। कौरव और अन्य राजा इस कार्य में असफल रहे। अंततः अर्जुन, जो उस समय ब्राह्मण वेष में थे, इस कठिन कार्य में सफल हुए और द्रौपदी का वरण किया।
जब अर्जुन द्रौपदी को लेकर घर पहुँचे और माता कुंती से कहा – “माँ, देखो हम क्या लाए हैं,” तो बिना देखे ही कुंती ने कह दिया – “सब मिलकर बाँट लो।” इसी वचन को धर्म मानकर द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी बनीं।
द्रौपदी का व्यक्तित्व
द्रौपदी का व्यक्तित्व अद्वितीय था। वह रूपवती, बुद्धिमती और साहसी थीं। उनका वर्णन "कृष्णा" नाम से भी किया जाता है क्योंकि उनका रंग श्यामल था। वह केवल सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ही नहीं, बल्कि धर्म और न्याय की प्रतीक भी थीं।
उनके मन में आत्मसम्मान की भावना प्रबल थी। वे अन्याय और अपमान सहन नहीं कर सकती थीं। यही कारण है कि जब दुर्योधन और दुःशासन ने उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया, तो उन्होंने पूरी सभा में प्रश्न खड़ा कर दिया – “क्या मुझे दाँव पर लगाया ही जा सकता है?” यह प्रश्न आज भी स्त्री की गरिमा और अधिकार का प्रतीक माना जाता है।
द्रौपदी चीरहरण प्रसंग
महाभारत का सबसे मार्मिक और निर्णायक प्रसंग द्रौपदी का चीरहरण है। दुर्योधन ने कौरवों और पांडवों के बीच जुए का खेल आयोजित किया। युधिष्ठिर ने जुए में सब कुछ हारकर अंततः द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया। दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने द्रौपदी को सभा में खींच लाया और उनके वस्त्र हरण का प्रयास किया।
द्रौपदी ने उस समय भगवान कृष्ण को पुकारा। कृष्ण ने उनकी रक्षा की और उनके वस्त्र अंतहीन हो गए। यह घटना केवल अन्याय का प्रतीक नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के संघर्ष का भी आधार बनी। यही वह क्षण था जब द्रौपदी ने शपथ ली कि जब तक कौरवों का विनाश नहीं होगा, वे अपने केश नहीं बाँधेंगी।
द्रौपदी की भूमिका महाभारत युद्ध में
द्रौपदी का अपमान ही महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना। उनका आत्मसम्मान पांडवों की प्रतिज्ञा बन गया और यही युद्ध का बीज था। युद्ध के दौरान भी द्रौपदी अपने पतियों को धर्म और साहस के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रहीं।
युद्ध के बाद जब कौरवों का विनाश हुआ, तब द्रौपदी ने अपने शपथ को पूरा होते देखा। वह केवल प्रतिशोध की प्रतीक नहीं थीं, बल्कि न्याय और धर्म की विजय का प्रतीक भी बनीं।
द्रौपदी और भगवान कृष्ण का संबंध
द्रौपदी और भगवान कृष्ण का संबंध अत्यंत घनिष्ठ और आत्मीय था। कृष्ण उन्हें अपनी सखी मानते थे। द्रौपदी भी हर कठिन परिस्थिति में कृष्ण को स्मरण करती थीं। चीरहरण प्रसंग में जब उन्होंने कृष्ण को पुकारा, तो कृष्ण ने उनकी रक्षा की। यह घटना दर्शाती है कि भक्ति और श्रद्धा में कितनी शक्ति होती है।
कृष्ण हमेशा द्रौपदी को धर्म और धैर्य का मार्ग दिखाते रहे। उनका संबंध केवल मित्रता का ही नहीं, बल्कि भगवान और भक्त का भी था।
द्रौपदी का महत्व
द्रौपदी केवल पांडवों की पत्नी ही नहीं थीं, बल्कि महाभारत के घटनाक्रम की धुरी थीं। उनके व्यक्तित्व से हमें कई महत्वपूर्ण संदेश मिलते हैं:
आत्मसम्मान का महत्व – द्रौपदी ने अन्याय और अपमान के विरुद्ध आवाज़ उठाई।
धैर्य और साहस – कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य और साहस का परिचय दिया।भक्ति और विश्वास – कृष्ण में उनकी अटूट श्रद्धा ने उन्हें हर संकट से उबारा।
नारी शक्ति का प्रतीक – द्रौपदी भारतीय संस्कृति में स्त्री शक्ति और सम्मान की प्रतीक हैं।
द्रौपदी का अंत
महाभारत युद्ध के बाद पांडव और द्रौपदी हिमालय की ओर महाप्रस्थान के लिए निकले। यात्रा के दौरान सबसे पहले द्रौपदी गिरीं। माना जाता है कि अर्जुन के प्रति उनका अधिक मोह ही इसका कारण था। फिर भी उन्होंने जीवनभर धर्म और सत्य के मार्ग पर चलते हुए अपनी भूमिका निभाई।
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