ट्रेन का इंजन और सच्चे नेतृत्व की मिसाल

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यह किस्सा सुनने में जितना साधारण लगता है, दरअसल उसमें ज़िन्दगी का बहुत बड़ा सबक़ छिपा हुआ है। अंग्रेज़ों के ज़माने में जब मुल्क में रेलगाड़ियाँ पहली बार चलीं तो लोग दूर-दूर से इन्हें देखने आते। उस दौर में धुआँ उगलते हुए इंजन की गड़गड़ाहट, सीटी की गूँज और तेज़ी से दौड़ते डिब्बों की लंबी कतार एक अलग ही करिश्मा मालूम होती थी। यही आकर्षण एक पीर साहब को भी बार-बार स्टेशन की ओर खींच लाता।

पीर साहब हर रोज़ अपनी मशग़ूलियत छोड़कर स्टेशन जाते और इंजन को बड़े ध्यान से देखते। उनके मुरीदों ने नोट किया कि यह उनकी आदत बन चुकी है। आखिरकार एक दिन उन्होंने हिम्मत की और पूछ ही लिया—“हुज़ूर! आप रोज़ाना ट्रेन देखने क्यों चले आते हैं? इसमें ऐसा क्या राज़ है?”

पीर साहब हल्की मुस्कान के साथ बोले—“मुझे इस ट्रेन के इंजन से मोहब्बत हो गई है।”

मुरीदों को यह जवाब और भी हैरान कर गया। उन्होंने ताज्जुब से कहा—“हुज़ूर, एक लोहे की मशीन से भला मोहब्बत क्यों?”

पीर साहब ने गहरी साँस लेते हुए कहा—“इसकी कुछ वजहें हैं।” फिर उन्होंने अपनी मोहब्बत की दलीलें एक-एक करके बयान कीं।

पहली वजह, उन्होंने कहा, यह इंजन तब तक नहीं रुकता जब तक अपनी मंज़िल तक न पहुँच जाए। चाहे रास्ता लंबा हो, मुश्किल हो या मौसम खराब हो, इंजन अपनी राह चलता रहता है। यह हमें सिखाता है कि इंसान को अपने मक़सद पर डटे रहना चाहिए और केवल मंज़िल हासिल करने के बाद ही रुकना चाहिए।

दूसरी वजह, इंजन अपने हर डिब्बे को साथ लेकर चलता है। छोटे हों या बड़े, सबको एक ही ताक़त से खींचता है। यही असली रहनुमाई है—किसी को पीछे न छोड़ना बल्कि सबको साथ लेकर मंज़िल तक पहुँचाना।

तीसरी वजह, इंजन आग खुद खाता है। कोयला और ईंधन की तपिश खुद झेलता है, लेकिन पीछे लगे डिब्बों को उस आग से सुरक्षित रखता है। इसका मतलब है कि सच्चा नेता वही है जो तकलीफ़ खुद उठाए और अपनी क़ौम को आराम और राहत दे।

चौथी वजह, इंजन अपने तय शुदा रास्ते से नहीं भटकता। वह पटरियों पर ही चलता है और अपने मार्ग पर डटा रहता है। इससे हमें यह सबक़ मिलता है कि इंसान को अपने उसूलों पर कायम रहना चाहिए और हर हाल में सही रास्ता अपनाना चाहिए।

पाँचवीं वजह, इंजन डिब्बों का मोहताज नहीं होता। अगर सारे डिब्बे अलग कर दिए जाएँ तो भी इंजन अपनी ताक़त से आगे दौड़ सकता है। यानी नेता इतना मज़बूत होना चाहिए कि अगर सब साथ छोड़ दें तब भी वह अपने मिशन से पीछे न हटे।

आख़िर में पीर साहब ने कहा—“क़ौम का असली लीडर ट्रेन के इंजन जैसा होना चाहिए। उसे मंज़िल का पता हो, अपनी क़ौम को साथ लेकर चले, मुश्किलें खुद उठाए, उसूलों पर अडिग रहे और कभी दूसरों का मोहताज न बने।”

यह सुनकर उनके मुरीदों के दिलों में इंजन की गड़गड़ाहट अब केवल शोर नहीं रही, बल्कि ज़िन्दगी और रहनुमाई का गहरा सबक़ बन गई।

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