ययाति का जीवन वैभव, सामर्थ्य और ऐश्वर्य का पर्याय था। उसके अनेक पत्नियां थीं, विशाल साम्राज्य था और सौ वर्ष का जीवन बीत चुका था। धन-वैभव, शक्ति और यश के बावजूद उसका मन अब भी अशांत था। जब सौ वर्षों के बाद मृत्यु उसके द्वार पर आई तो ययाति घबरा उठा। उसने मृत्यु से कहा—“एक क्षण ठहरो, अभी मेरा कोई भी काम पूरा नहीं हुआ है। मैं अभी भी वहीं खड़ा हूं, जहां जन्म के दिन खड़ा था। यह भी कोई आने का समय है! अभी तो कोई भी सपना सत्य नहीं हुआ, अभी तो सब बीज ही बीज हैं, कोई अंकुर फूटा ही नहीं। मुझे और समय चाहिए।”
मृत्यु मुस्कुराई। उसने मज़ाक में कहा—“अगर तुम्हारा कोई पुत्र तुम्हें अपना जीवन दे दे, तो मैं तुम्हें छोड़ सकती हूं और उसे ले जाऊंगी।” यह सुनकर ययाति में फिर उम्मीद जागी। उसने अपने सौ पुत्रों को बुलाकर कहा—“मेरे बेटों! मेरी जिंदगी अधूरी रह गई है। मैंने तुम्हें पैदा किया, तुम्हें बड़ा किया, तुम्हारे लिए अपना जीवन होम कर दिया। अब मेरी इच्छा है कि तुममें से कोई मुझे अपना जीवन दे दे, ताकि मैं कुछ और वर्ष जी सकूं। मौत तैयार है मुझे छोड़ने को, बस तुममें से किसी को अपना जीवन देना होगा।”
परन्तु यह सुनते ही पुत्रों के चेहरों पर असमंजस और भय छा गया। उनके अपने-अपने सपने थे, अपनी इच्छाएं थीं, अपनी वासनाएं अधूरी थीं। उन्हें भी और समय चाहिए था। बड़े-बड़े बेटे, जो अधिक अनुभवी और समझदार थे, तुरंत पीछे हट गए। उन्होंने यहां तक कह दिया—“आपको यह कहते हुए संकोच नहीं होता? आप सौ साल जी चुके हैं, हम तो अभी इतने भी नहीं जिए। और आप हमसे मरने के लिए कहते हैं! हम भी तो अधूरे हैं, हमें भी समय चाहिए।”
लेकिन आश्चर्य यह हुआ कि एक छोटा बेटा राज़ी हो गया। ययाति ने उससे पूछा—“तू क्यों राज़ी हो रहा है?” छोटे बेटे ने बड़ी सादगी से उत्तर दिया—“मैं इसलिए राज़ी हूं कि अगर सौ वर्ष जीकर भी आपकी वासनाएं तृप्त नहीं हुईं, तो फिर मैं भी इस मेहनत में क्यों पड़ूं? सौ वर्ष बाद भी मरना ही है, तो मेरी जिंदगी व्यर्थ चली जाएगी। कम से कम अभी इतनी तो काम आ रही है कि आप कुछ दिन और जी लें।”
फिर भी ययाति को यह बात नहीं सूझी। उसने बेटे का जीवन स्वीकार कर लिया। बेटा मर गया और ययाति फिर सौ वर्ष जीया। यह सौ वर्ष कब निकल गए, पता भी न चला। जब मृत्यु फिर द्वार पर आ खड़ी हुई, ययाति फिर कांप गया। उसने कहा—“इतनी जल्दी! क्या सौ वर्ष पूरे हो गए? मेरी वासनाएं तो उतनी ही अधूरी हैं, रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ा।”
इस बीच ययाति के और भी पुत्र हो गए थे। मृत्यु ने कहा—“फिर किसी और पुत्र को पूछ लो, यदि कोई राज़ी हो।” और कथा कहती है कि ऐसा दस बार हुआ। हर बार किसी पुत्र के जीवन के बदले ययाति को और समय मिल गया। इस तरह ययाति हज़ार वर्ष जीया। लेकिन जब हज़ार साल बाद मृत्यु आई, तब भी ययाति ने वही कहा—“इतनी जल्दी! अभी मुझे समय चाहिए। मेरी इच्छाएं, मेरी वासनाएं तो अब भी अधूरी हैं।”
मृत्यु ने तब गंभीर होकर कहा—“ययाति! कितना ही समय तुम्हें मिले, वासनाएं पूरी नहीं होंगी। समय छोटा पड़ जाता है। समय अनंत है, लेकिन वासनाएं उससे भी बड़ी प्रतीत होती हैं। मृत्यु जब भी द्वार पर आएगी, तुम कांपोगे, क्योंकि इच्छाओं का कुआं कभी भरता नहीं।”
यह कथा केवल ययाति की नहीं है। यह हमारी भी कहानी है। ययाति हमें काल्पनिक लग सकता है, लेकिन सच पूछो तो हम भी अनगिनत जन्मों से यही करते आ रहे हैं। हमने न जाने कितनी बार जन्म लिया, कितने जीवन जिए। हर बार अपनी इच्छाओं के पीछे भागे, हर बार वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश की। लेकिन हर बार जब मृत्यु सामने आई, तो हम फिर उतने ही अधूरे थे। हमने फिर समय मांगा, फिर जन्म पाया, फिर वही सिलसिला दोहराया।
ययाति की कहानी हमें यह सिखाती है कि वासनाओं की कोई सीमा नहीं है। वे समय से भी बड़ी हो जाती हैं। चाहे हमें सौ साल मिलें या हज़ार साल, इच्छाओं का कुआं कभी नहीं भरता। इसलिए जीवन का असली सार यह नहीं कि हम कितना जीते हैं, बल्कि यह है कि हम कैसे जीते हैं—क्या हम अपनी वासनाओं से ऊपर उठकर संतोष, समर्पण और जागरूकता में जीते हैं या नहीं।
मृत्यु ने ययाति को अंततः यह बोध दिया कि समय सीमित नहीं है, सीमित हमारी समझ है। वासनाओं का पीछा करते-करते हम जीवन के असली अर्थ को भूल जाते हैं। ययाति की कथा हमें चेतावनी देती है कि यदि हमने समय रहते नहीं सीखा, तो हम भी हज़ारों साल जीकर वही कहेंगे—“इतनी जल्दी! अभी तो समय चाहिए!”
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