एक घना और शांत जंगल था, जहां प्रकृति की गोद में एक संत महात्मा निवास करते थे। उनका जीवन सादगी और त्याग से भरा हुआ था। वे सन्यासियों वाली वेशभूषा धारण करते, साधारण झोपड़ी में रहते और दिन-रात ध्यान तथा साधना में लीन रहते। उनके चेहरे पर अद्भुत तेज था, उनकी वाणी में मिठास और आचरण में अनुशासन। उन्हें देखकर कोई भी साधारण व्यक्ति यह सोच सकता था कि यह एक साधारण साधु हैं, परंतु वास्तव में उनके भीतर ज्ञान का ऐसा प्रकाश था जो हर आगंतुक के हृदय को प्रभावित करता।
प्रतिदिन अनेक लोग जंगल में उनकी झोपड़ी तक पहुंचते। कोई मार्गदर्शन लेने आता, कोई आशीर्वाद पाने और कोई सिर्फ उनके दर्शन करने। उनकी सरलता और सत्यनिष्ठा लोगों को अपनी ओर खींच लेती थी।
एक दिन शहर का एक व्यक्ति उस जंगल से गुजर रहा था। चलते-चलते उसकी नजर संत महात्मा की झोपड़ी पर पड़ी, जहां दूर-दूर से आए लोग उनकी सेवा में खड़े थे। यह दृश्य देखकर वह व्यक्ति चकित हुआ और सीधे महात्मा जी के पास पहुंचा। उसने बिना संकोच कह दिया –
“आपके पास धन-दौलत नहीं है, न ही आपने महंगे कपड़े पहने हैं। आपके पास कोई ऐश्वर्य नहीं है, फिर भी इतने लोग आपके दर्शन करने क्यों आते हैं? मुझे तो आपमें ऐसा कुछ विशेष दिखाई नहीं देता जिससे मैं प्रभावित हो सकूं।”
उसकी बातें सुनकर महात्मा जी मुस्कुराए। वे जानते थे कि यह व्यक्ति बाहरी चमक-दमक से प्रभावित होने वाला है और भीतर की गहराई को नहीं समझ पा रहा। महात्मा जी ने अपनी उंगली से एक अंगूठी उतारी और उसे देते हुए बोले –
“जाओ, इसे बाजार में बेचकर मेरे लिए एक सोने की माला लेकर आओ।”
वह व्यक्ति अंगूठी लेकर बाजार गया। वहां उसने अलग-अलग दुकानदारों को अंगूठी दिखाकर उसके बदले सोने की माला मांगनी चाही। लेकिन किसी ने भी उस अंगूठी के बदले कुछ खास देने से इनकार कर दिया। किसी ने कहा कि यह तो मामूली है, तो किसी ने मजाक उड़ाया। यहां तक कि कोई दुकानदार उसके बदले पीतल का टुकड़ा देने को भी तैयार नहीं हुआ।
काफी देर तक प्रयास करने के बाद थक-हार कर वह व्यक्ति महात्मा जी के पास लौट आया और बोला –
“इस अंगूठी की तो कोई कीमत ही नहीं है। किसी ने इसे खरीदना भी नहीं चाहा।”
महात्मा जी शांत भाव से मुस्कुराए और बोले –
“अब इस अंगूठी को पीछे वाली गली में जो सुनार की दुकान है, वहां ले जाओ और देखो कि वह क्या कहता है।”
वह व्यक्ति दोबारा बाजार गया और इस बार सुनार की दुकान पर पहुंचा। सुनार ने अंगूठी को हाथ में लिया, ध्यान से देखा और तुरंत बोला –
“यह तो बहुमूल्य हीरे की अंगूठी है। इसके बदले मैं आपको एक नहीं, पांच सोने की मालाएं देने को तैयार हूं।”
यह सुनकर व्यक्ति चौंक गया। अभी कुछ समय पहले तक कोई भी दुकानदार उस अंगूठी के बदले पीतल तक देने को तैयार नहीं था, और अब यह सुनार पांच सोने की माला देने को तैयार है! वह हैरानी और उत्सुकता से अंगूठी लेकर वापस महात्मा जी के पास लौटा और सारी बातें विस्तार से बताईं।
महात्मा जी ने गंभीर स्वर में कहा –
“देखो, यह अंगूठी साधारण नहीं है। यह हीरे की अंगूठी है जिसकी असली पहचान सिर्फ सुनार ही कर सकता है। बाकी लोग इसकी कीमत को समझ ही नहीं पाए। ठीक उसी तरह, मेरी वेशभूषा या साधारण जीवन देखकर तुमने भी मुझे सामान्य समझ लिया। लेकिन लोग मेरी ओर इसलिए आते हैं क्योंकि वे मेरे ज्ञान और आचरण को पहचानते हैं। ज्ञान ही वास्तविक संपत्ति है, जो किसी के भीतर का प्रकाश बनकर सबको आकर्षित करता है।”
महात्मा जी की बात सुनकर वह व्यक्ति शर्मिंदा हो गया। उसे समझ आया कि असली मूल्य बाहरी सजावट या कपड़ों में नहीं होता, बल्कि व्यक्ति के आचरण, विचार और ज्ञान में होता है।
उस दिन उसने सीखा कि हमें किसी को उसके बाहरी रूप या स्थिति से नहीं आंकना चाहिए। जैसे हीरे की पहचान सिर्फ सुनार कर सकता है, वैसे ही सच्चे संत और ज्ञानी की पहचान सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनके मन में श्रद्धा और विवेक हो।
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