लंका विजय के उपरांत जब अयोध्या लौटकर श्रीराम का राजाभिषेक हुआ, तो पूरे नगर में उत्सव का वातावरण था। इस शुभ अवसर पर सभी ऋषि-मुनि राजदरबार में पधारे और एक स्वर में बोले—“रावण के वध से अब संसार में शांति स्थापित हो चुकी है। समस्त प्राणी सुख और निश्चिंतता का अनुभव कर रहे हैं।”
उनकी वाणी सुनकर देवी सीता अचानक मंद-मंद मुस्कुरा उठीं। सभी ऋषियों का ध्यान उनकी ओर गया और उन्होंने विनम्र भाव से सीता जी से उस हंसी का कारण पूछा। सीता ने राम और मुनियों से अनुमति लेकर बचपन की एक घटना का उल्लेख किया।
उन्होंने कहा—“जब मैं छोटी थी, तब मेरे पिता महाराज जनक के राजमहल में एक ब्राह्मण पधारे थे। वे चातुर्मास्य व्रत का पालन कर रहे थे और उनके सेवाभाव का अवसर मुझे मिला। वे अपने अवकाश के समय मुझे अनेक कथाएँ सुनाया करते थे। उन्हीं में से एक कथा सहस्त्रमुख रावण की थी, जो आज भी मेरे हृदय में अंकित है।”
सीता जी ने आगे कहा—“विश्रवा मुनि की पत्नी कैकसी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। बड़ा पुत्र सहस्त्रमुख रावण और छोटा पुत्र दशमुख रावण। दशमुख रावण को ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त था और उसने तीनों लोकों पर अधिकार कर लंका में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। परंतु उसका बड़ा भाई सहस्त्रमुख पुष्कर द्वीप पर अपने नाना सुमालि के पास निवास करता था। वह इतना पराक्रमी और गर्वीला था कि मेरु पर्वत को सरसों के दाने समान, समुद्र को गाय के खुर की रेखा जैसा और तीनों लोकों को तिनके के समान तुच्छ मानता था। उसका उत्पात इतना बढ़ गया था कि समस्त लोक व्याकुल हो उठे। तब ब्रह्माजी ने उसे स्नेह और उपदेश देकर किसी प्रकार शांत किया, किंतु उसका आतंक पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ।”
सीता ने कहा—“आज जब आप सब दशमुख रावण के वध से शांति की बात कर रहे हैं, तो मुझे हंसी इसलिए आई कि सहस्त्रमुख रावण का आतंक अभी भी शेष है। जब तक वह जीवित है, तब तक पूर्ण शांति कैसे संभव हो सकती है?”
सीता की यह बात सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। श्रीराम ने तत्क्षण पुष्पक विमान का स्मरण किया और सुग्रीव, विभीषण सहित अपनी सेना को साथ लेकर सहस्त्रमुख रावण के विनाश का निश्चय किया। माता सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और मंत्रीगण भी साथ थे।
पुष्पक विमान की तीव्र गति से सभी शीघ्र ही पुष्कर द्वीप पहुँच गए। वहां यह समाचार मिलते ही कि कोई उसके साथ युद्ध के लिए आया है, सहस्त्रमुख रावण क्रोधित होकर रणभूमि में उतरा। उसने मनुष्यों, वानरों और भालुओं की विशाल सेना को देखकर उपहास किया और वायव्यास्त्र का प्रयोग कर दिया। इस अस्त्र की शक्ति से संपूर्ण सेना युद्धभूमि से बाहर फेंक दी गई। केवल श्रीराम, उनके तीनों भाई, माता सीता, हनुमान, नल-नील, जाम्बवान और विभीषण ही अप्रभावित रहे।
युद्ध आरंभ हुआ। श्रीराम के बाणों से असुर सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। सहस्त्रमुख रावण क्रोध से गर्जन करता हुआ बोला—“आज मैं अकेला ही समस्त संसार को शून्य कर दूँगा।” उसने पन्नगास्त्र का प्रयोग किया, जिससे चारों दिशाएँ विषधर सर्पों से भर गईं। राम ने सौपर्णेयास्त्र का प्रयोग कर उसे नष्ट कर दिया। युद्ध अत्यंत भयंकर हो उठा।
श्रीराम ने वही बाण उठाया जिससे दशमुख रावण का वध हुआ था। किंतु सहस्त्रमुख रावण ने अद्भुत शक्ति से उस बाण को पकड़कर तोड़ डाला और अपने तीव्र अस्त्र से श्रीराम को मूर्छित कर दिया। यह देखकर राक्षस अपार प्रसन्न हुआ और अपने सहस्त्र भुजाओं को उठाकर नृत्य करने लगा।
यह दृश्य देखकर माता सीता का धैर्य टूट गया। उन्होंने महाकाली का रूप धारण कर लिया। विकराल स्वरूप में उन्होंने एक ही क्षण में सहस्त्रमुख रावण का सिर धड़ से अलग कर दिया। उसकी असुर सेना भी पलभर में नष्ट हो गई। किंतु महाकाली का क्रोध इतना प्रचंड था कि उनके अंग-अंग से सहस्त्रों मातृकाएँ प्रकट हो गईं और सारा ब्रह्मांड भयभीत हो उठा।
पृथ्वी काँपने लगी, देवता व्याकुल हो उठे। तब ब्रह्मा सहित समस्त देवताओं ने देवी की स्तुति प्रारंभ की। उनकी आराधना से महाकाली का क्रोध शांत हुआ और वे पुनः सती स्वरूपिणी सीता में विलीन हो गईं।
इसी बीच श्रीराम भी चेतना प्राप्त कर उठे। उन्होंने देवी का विराट रूप देखकर उन्हें प्रणाम किया और सहस्त्रनाम स्तोत्र से उनकी आराधना की। सभी ने मिलकर आदिशक्ति की स्तुति की और सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पुनः शांति और आनंद स्थापित हुआ।
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