वर्तमान विज्ञान भूतों के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर पाता, लेकिन यह मानता है कि मनुष्य में कुछ अदृश्य और शक्तिशाली तत्व होते हैं, जिसे आत्मा कहा जाता है। आत्मा, शरीर से अलग होते हुए भी हमारे जीवन और चेतना से जुड़ी रहती है। इस विषय पर विभिन्न शोध और अनुसंधान किए जा रहे हैं, ताकि यह समझा जा सके कि मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति क्या होती है। लेकिन भूत वास्तव में होते हैं या नहीं, उनका स्वरूप कैसा है, वे कहाँ रहते हैं—इन सवालों के उत्तर अभी भी रहस्यमय बने हुए हैं।
हिंदू धर्म में मृत्यु और आत्मा के स्वरूप को बड़े ही वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से समझाया गया है। यह माना गया है कि मृत्यु के समय यदि कोई व्यक्ति प्राकृतिक तरीके से नहीं मरता—जैसे दुर्घटना, आत्महत्या या असामयिक मृत्यु—तो उसकी आत्मा भटकती है और भूत का रूप धारण कर लेती है। मृत्यु के बाद आत्मा को अपनी अधूरी इच्छाओं और कर्मों के अनुसार पूरा होना होता है, तभी वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में प्रवेश करती है।
वैदिक ग्रंथ, विशेष रूप से गरुड़ पुराण, भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। गरुड़ पुराण के अनुसार, आत्मा के तीन मुख्य स्वरूप हैं—जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जीवात्मा वह है जो भौतिक शरीर में निवास करती है। जब जीवात्मा किसी मृतक शरीर में कामनाओं और इच्छाओं के साथ निवास करती है, तो उसे प्रेतात्मा कहा जाता है। और जब आत्मा अपने सबसे सूक्ष्मतम रूप में प्रवेश करती है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहा जाता है। इन सिद्धांतों के अनुसार भूत और प्रेत केवल मिथक नहीं हैं, बल्कि आत्मा के विभिन्न अवस्थाओं के प्रतीक हैं।
हिंदू धर्म में मृत व्यक्ति के कर्म और मृत्यु के प्रकार के अनुसार भूतों को अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इनमें प्रमुख हैं: भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल और क्षेत्रपाल। आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुसार भूतों के 18 प्रकार माने गए हैं। भूत, मृत्यु के बाद आत्मा का प्रारंभिक रूप है। जब कोई सामान्य व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसकी आत्मा सर्वप्रथम भूत के रूप में प्रकट होती है।
हिंदू धर्म में जन्म-मरण और पुनर्जन्म का सिद्धांत 84 लाख योनी (जीवन रूप) में जीवन व्यतीत करने पर आधारित है। इन योनियों में कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव सभी शामिल हैं। प्रत्येक जन्म में आत्मा जिस जीव में प्रवेश करती है, उसे उसकी योनि कहा जाता है। मृत्यु के बाद, आत्माएं अदृश्य भूत-प्रेत योनि में चली जाती हैं। इस चक्र के माध्यम से आत्मा अपने कर्मों का फल भोगती है और अगले जन्म के लिए तैयार होती है।
कौन बनता है भूत
ऐसे व्यक्ति जो अपनी इच्छाओं, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ या कामवासना से बंधकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अक्सर भूत बनकर भटकते हैं। वहीं, जो व्यक्ति दुर्घटना, हत्या या आत्महत्या से मृत्यु को प्राप्त होता है, वह भी भूत का रूप धारण करता है। ऐसे भूतों की आत्मा को शांत करने के लिए श्राद्ध और तर्पण जैसे कर्मकांड किए जाते हैं। जिन परिवारों या व्यक्तियों द्वारा अपने पूर्वजों और मृतकों के लिए यह कर्मकांड नहीं किए जाते, वे अक्सर अतृप्त आत्माओं की परेशानियों का सामना करते हैं।
वैदिक ग्रंथों में यम वायु का उल्लेख है। मृत्युकाल में आत्मा इस यम वायु में कुछ समय स्थिर रहती है, और फिर पुनः गर्भधारण के लिए अगली यात्रा पर निकलती है। जब आत्मा गर्भ में प्रवेश करती है, तो वह गहरी सुषुप्ति की अवस्था में होती है। जन्म से पूर्व भी आत्मा इसी अवस्था में रहती है।
जो आत्मा अपने पिछले जन्मों के अनुभवों और स्मृतियों को धारण करती है, वही अपने मरने का ज्ञान रखती है और भूत बनती है। मृत्युकाल में आत्मा का चक्र भी स्वप्न और सुषुप्ति के समान होता है। जैसे सुषुप्ति से स्वप्न और स्वप्न से जाग्रति की स्थिति में आती है, उसी तरह मृत्यु के बाद आत्मा जाग्रति, स्वप्न और सुषुप्ति के विभिन्न चरणों से गुजरती है। यह चक्र लगातार चलता रहता है, और आत्मा के अनुभवों के आधार पर उसकी अगली यात्रा तय होती है।
इस प्रकार, भूत केवल भयावह कथाएँ नहीं हैं, बल्कि आत्मा के अदृश्य और रहस्यमय स्वरूप का प्रतीक हैं। विज्ञान भले इसका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दे सकता, लेकिन धर्म और आध्यात्मिक दृष्टि से इसे आत्मा के कर्म और मृत्यु के अदृश्य चक्र का हिस्सा माना जाता है। भूत-प्रेत की वास्तविकता केवल आत्मा और उसके कर्मों की समझ से ही स्पष्ट होती है।
इस विषय पर शोध और अनुभव हमें यह समझने में मदद कर सकते हैं कि मृत्यु के बाद भी आत्मा कभी नहीं मरती, केवल उसकी यात्रा बदलती रहती है। भूत केवल आत्मा की यात्रा के प्रारंभिक चरण का नाम है, और इसका उद्देश्य हमारे जीवन, कर्म और भविष्य के अनुभवों से जुड़ा होता है।
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