शाम ढल रही थी। मैं रोज़ की तरह ऑफिस से थका-हारा ट्रेन में बैठा घर लौट रहा था। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था, फिर भी एक सीट मिल गई। मैंने चैन की साँस ली और खिड़की के बाहर बदलते दृश्य देखने लगा। भीड़भाड़ वाले प्लेटफ़ॉर्म, भागते हुए लोग, और पटरियों की खटर-पटर—यह सब रोज़ की आदत जैसा था।
लेकिन उसी रोज़मर्रा के शोर के बीच मेरी नज़र दो बच्चों पर जा टिकी। वे पास की सीट पर बैठे थे—एक स्कूली लड़का और लड़की। दोनों ने अपनी-अपनी नीली-धारीदार स्कूल यूनिफॉर्म पहन रखी थी। देखने में यही लगता कि शायद अभी-अभी क्लास ख़त्म करके लौट रहे हों। लेकिन उनके हावभाव और बातें कुछ और ही कहानी कह रही थीं।
लड़की ने धीरे से लड़के की शर्ट का कोना पकड़ रखा था, जैसे वह उसकी हर बात से सहमति जता रही हो। उनके चेहरे पर एक मासूम चमक थी, और उनकी आँखों में छुपे राज़। वे हँसते-हँसते धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, मानो पूरी ट्रेन उनके लिए गायब हो चुकी हो और वे किसी दूसरी दुनिया में जी रहे हों।
लड़के ने झिझकते हुए कहा, “तुम्हें पता है न, अगर घर पर किसी को पता चल गया तो क्या होगा? मम्मी-पापा सोचते हैं कि मैं पढ़ाई में कितना सीरियस हूँ।”
लड़की ने शरारती मुस्कान के साथ उत्तर दिया, “मेरे भी घरवाले यही मानते हैं कि मैं ट्यूशन और स्कूल के अलावा कहीं जाती ही नहीं। लेकिन अगर तुमसे न मिलूँ तो दिन अधूरा लगता है।”
उनकी बातें सुनकर मेरे मन में हलचल होने लगी। ये दोनों अपने-अपने परिवारों को बहाना बनाकर रोज़ मिलते थे। उनका रिश्ता उनके माता-पिता से छुपा हुआ था, एक ऐसा राज़ जो किसी दिन खुल जाए तो शायद सब कुछ बदल जाए।
मैं अनजाने में उनकी दुनिया का हिस्सा बन गया था। उनकी मासूम हँसी मेरे कानों में पड़ रही थी, पर मेरे मन में सवालों की गूंज थी। क्या ये सच में गलत कर रहे हैं? क्या यह मासूमियत है या भरोसे से खेलना? किशोरावस्था की यह उम्र ही ऐसी होती है—जहाँ दिल दिमाग पर हावी हो जाता है।
लड़का बीच-बीच में अपनी कलाई घड़ी देख रहा था। उसके चेहरे पर चिंता झलक रही थी, जैसे घर लौटने में देर हो गई तो सवालों की बौछार हो जाएगी। लड़की भी मोबाइल पर बार-बार स्क्रीन देखती। शायद उसने किसी को मैसेज करके कहा हो कि वह ट्यूशन में है, और अब इस झूठ का बोझ भी उस पर था।
ट्रेन की खिड़की से आती हवा उनके बिखरे बालों से खेल रही थी, और वे दोनों उसमें भी अपनी हँसी के रंग घोल रहे थे। मुझे यह देखकर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हो रही थी।
कभी-कभी उनकी मासूम मुस्कान देखकर लगता कि यह बस बचपन की चंचलता है। लेकिन अगले ही पल यह सोचकर मन भारी हो जाता कि अगर उनके घरवालों को सच्चाई पता चल गई तो क्या होगा? माता-पिता, जो हर दिन बच्चों के लिए सपने बुनते हैं, क्या वे इस सच्चाई को स्वीकार कर पाएँगे?
ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती रही। यात्रियों की भीड़ उतरती-चढ़ती रही, लेकिन ये दोनों अपनी छोटी-सी दुनिया में खोए रहे। मानो उनके लिए इस पल के अलावा कुछ भी मायने न रखता हो।
स्टेशन पास आया तो लड़के ने गहरी साँस ली और लड़की से कहा, “अब मुझे जाना होगा। वरना घर पहुँचने में देर हुई तो मम्मी को शक हो जाएगा।”
लड़की का चेहरा उदास हो गया। उसने धीमी आवाज़ में कहा, “ठीक है… लेकिन कल मिलना मत भूलना।”
दोनों हाथों में हाथ डाले ट्रेन से उतर गए। भीड़ में उनकी परछाइयाँ धीरे-धीरे ओझल हो गईं।
मैं अपनी सीट पर बैठा रहा, पर मन में बेचैनी बढ़ गई। यह दृश्य मुझे भीतर तक हिला गया। मैंने सोचा—क्या सच में ये बच्चे अपने माता-पिता का विश्वास तोड़ रहे हैं, या यह सिर्फ़ उस उम्र की मासूम भावनाएँ हैं जो किसी को समझ में नहीं आतीं?
ट्रेन की खिड़की से बाहर अँधेरा गहराता गया। मेरी आँखों के सामने बार-बार वही दृश्य घूम रहा था—स्कूल की ड्रेस में दो बच्चे, हँसी में लिपटी मासूमियत, और उनके चेहरे पर छुपे रहस्य की परछाई।
मैंने मन ही मन सोचा—यह उम्र भावनाओं से भरी होती है, गलतियों से सीखने की होती है। लेकिन साथ ही यह भी सच्चाई है कि विश्वास टूटने की चोट गहरी होती है। और यही सवाल मेरे साथ सफ़र करता रहा—क्या उनके माता-पिता जानते हैं कि उनके बच्चे उनके भरोसे के साथ खेल रहे हैं?
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