शाम का समय था। दफ्तर से लौटकर वह हमेशा की तरह थका-हारा घर पहुँचा। दरवाज़ा खोला तो पत्नी ने मुस्कुराकर पानी का गिलास थमाया। अभी उसने बैग सोफ़े पर रखा ही था कि पत्नी ने धीरे-से कहा,
“आज तुम्हारे बचपन के दोस्त आए थे। उन्हें तुरंत दस हज़ार रुपए की ज़रूरत थी। मैंने तुम्हारी आलमारी से रुपए निकालकर उन्हें दे दिए। सोचा कहीं लिखना हो तो लिख लेना।”
इतना सुनते ही उसका चेहरा बदल गया। आँखें गीली हो गईं, मन कहीं और खो गया। पत्नी ने घबराकर पूछा,
“अरे! क्या हुआ? मैंने कुछ ग़लत कर दिया क्या? उनके सामने तुमसे फ़ोन पर पूछना ठीक नहीं लगा। तुम सोच रहे होगे कि इतने पैसे बिना पूछे कैसे दे दिए। पर मुझे लगा, वह तुम्हारा बचपन का दोस्त है, तुम दोनों में गहरी दोस्ती है। इसलिए मैंने हिम्मत कर ली। अगर कोई ग़लती हो गई हो तो माफ़ कर देना।”
वह कुछ क्षण चुप रहा, फिर धीमी आवाज़ में बोला,
“नहीं… मुझे दुख इस बात का नहीं है कि तुमने पैसे दे दिए। बल्कि ख़ुशी है कि तुमने उसका साथ दिया, यही सही किया। दुख इस बात का है कि मेरा दोस्त तकलीफ़ में है और मैं समझ ही नहीं पाया। उसने इतनी बड़ी परेशानी में मुझसे मदद माँगी और मुझे यह भी पता नहीं था कि वह ऐसी हालत में है। इतने सालों में मैंने कभी उसका हालचाल तक नहीं पूछा। मैं कितना स्वार्थी हो गया हूँ।”
पत्नी ने उसे देखा—उसकी आँखों में पछतावे की नमी थी।
उसके मन में यादों की परतें खुलने लगीं। बचपन का वह साथी, जिसके साथ उसने कंचे खेले थे, बाग़ में आम तोड़े थे, बारिश में भीगते-भीगते घर लौटे थे। स्कूल की कॉपियाँ साझा की थीं, एक-दूसरे का टिफ़िन खाया था। जवानी में सपनों की बातें की थीं, जीवन की मुश्किलें साथ बाँटने की कसम खाई थी। वही दोस्त आज आर्थिक तंगी में है और वह इतने पास होकर भी उसकी तकलीफ़ को महसूस न कर सका।
“मैं क्यों इतना व्यस्त हो गया कि पुराने रिश्तों की खबर तक नहीं रख पाया?” उसने सोचा।
वह बोला,
“पत्नी, तुमने पैसे देकर सही किया। दोस्ती का असली मतलब यही होता है। लेकिन सोचो, मैंने इतने सालों में एक बार भी यह पूछने की ज़रूरत क्यों नहीं समझी कि वह किस हाल में है? हमारी ज़िंदगी कितनी स्वार्थी हो जाती है। हम मान लेते हैं कि जो लोग कभी हमारे साथ थे, वे हमेशा ठीक होंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि हर किसी के जीवन में कठिन घड़ियाँ आती हैं।”
पत्नी ने उसे ढाँढस बंधाया,
“देखो, देर से ही सही, अब तो तुम उसकी मदद कर सकते हो। ज़िंदगी हमें बार-बार मौका देती है रिश्तों को सँभालने का।”
वह मुस्कुराया,
“हाँ, सही कह रही हो। दोस्ती कोई हिसाब-किताब का रिश्ता नहीं होता कि आज मैंने तुम्हारे लिए किया तो कल तुम मेरे लिए करना। अगर देने और लेने की अपेक्षा ही हो, तो वह दोस्ती नहीं, सौदा है। असली दोस्ती तो दिल की खामोश घंटी है—साइलेंट बेल। यह बजे या न बजे, हमें भीतर से उसकी आवाज़ सुन लेनी चाहिए। हमें बिना कहे ही दोस्त के हालात समझ लेने चाहिए।”
उसने गहरी साँस ली।
“काश, मैंने पहले ही यह साइलेंट बेल सुन ली होती। तब शायद उसे मदद माँगने की नौबत ही न आती।”
पत्नी ने प्यार से उसका हाथ थाम लिया।
“अब भी देर नहीं हुई। कल ही जाकर मिलो। साथ बैठो, हालचाल पूछो। दोस्ती की डोर फिर से मज़बूत करो। यही असली कर्तव्य है।”
उसकी आँखों में चमक लौट आई। उसने निश्चय किया कि अब वह अपने दोस्त से नियमित संपर्क रखेगा, उसके सुख-दुख में साथ देगा। यह दस हज़ार रुपए तो एक बहाना था—असल में भगवान ने उसे याद दिलाया था कि रिश्तों की गर्माहट पैसों से कहीं अधिक मूल्यवान होती है।
रात को जब वह बिस्तर पर लेटा, तो मन में एक अजीब-सी शांति थी। दोस्ती का असली अर्थ समझ आ चुका था—
“दोस्ती वह रिश्ता है जिसमें अपेक्षा नहीं, अपनापन होता है। जहाँ दिल की साइलेंट बेल हमें अपने आप बता देती है कि सामने वाला कैसा है।”
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