भारतीय भक्ति परंपरा में संत तुलसीदास का नाम श्रद्धा, प्रेम और समर्पण का प्रतीक माना जाता है। उनके हृदय में अपने आराध्य श्रीराम के प्रति अपार प्रेम था। यही प्रेम उन्हें जीवन के हर क्षण में श्रीराम की उपस्थिति का अनुभव कराता था। लेकिन एक बार ऐसा अवसर आया जब इसी प्रेम ने उन्हें एक अद्भुत दिव्य अनुभव से गुज़ार दिया — यह कथा है जगन्नाथ पुरी की, जहाँ तुलसीदास ने प्रत्यक्ष रूप में अपने ईष्टदेव श्रीराम के दर्शन किए।
यात्रा की आरंभिक प्रेरणा
एक दिन तुलसीदास के मन में विचार आया कि वे अपने आराध्य श्रीराम के दर्शन करें। यह भावना उनके मन में गहराई तक समाई हुई थी। उन्होंने सोचा कि वे जगन्नाथ पुरी जाएँ, जहाँ स्वयं भगवान विष्णु अपने पूर्ण रूप में विराजमान हैं।
यात्रा का आरंभ उन्होंने श्रद्धा और भक्ति से किया। अनेक दिनों की यात्रा के बाद, वे अंततः उस पवित्र तीर्थभूमि पुरी पहुँचे — जहाँ सागर की लहरें भगवान जगन्नाथ के चरणों को छूने आती हैं।
मंदिर में प्रथम दर्शन और निराशा
पुरी में प्रवेश करते ही तुलसीदास ने देखा कि सैकड़ों-हज़ारों भक्त भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए उमड़े पड़े हैं। उनके हृदय में आनंद की लहर दौड़ गई। वे भी भीड़ के साथ मंदिर में प्रवेश कर गए।
लेकिन जैसे ही उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति देखी — उनके चेहरे पर आश्चर्य और फिर धीरे-धीरे निराशा छा गई।
वे सोच में पड़ गए — “ये मेरे ईष्ट श्रीराम कैसे हो सकते हैं? इनके तो हाथ ही नहीं हैं!”
उनका मन विचलित हो गया। भक्ति से भरा हृदय अचानक शंका और असंतोष से भर उठा। उन्हें लगा कि वे इतनी दूर व्यर्थ ही आए हैं। मंदिर से बाहर निकलकर वे उदास मन से पास ही एक स्थान पर बैठ गए। यात्रा की थकान, भूख और निराशा ने उन्हें घेर लिया था।
रात का रहस्यमय आगमन
रात गहरा चुकी थी। तुलसीदास ने वहीं बैठकर विश्राम करने का निश्चय किया। तभी अचानक उन्हें किसी के कदमों की आहट सुनाई दी।
उन्होंने सिर उठाकर देखा — एक सुंदर, तेजस्वी बालक उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा था। बालक के हाथ में एक थाली थी, जिसमें भगवान जगन्नाथ का प्रसाद था।
बालक ने विनम्र स्वर में कहा,
“महात्मा तुलसीदास जी! भगवान जगन्नाथ ने आपके लिए यह प्रसाद भेजा है।”
तुलसीदास ने थाली की ओर देखा और फिर बोले,
“बेटा, कृपया इसे वापस ले जाओ। मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।”
संवाद: भक्त और भगवान के बीच
बालक मुस्कराया और बोला,
“आप क्यों नहीं लेंगे? यह स्वयं जगन्नाथ का प्रसाद है। वे कहते हैं — ‘जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ’ — और आप उसे अस्वीकार कर रहे हैं?”
तुलसीदास ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया,
“मैं अपने ईष्ट श्रीराम को भोग लगाए बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता। यह प्रसाद मैं उन्हें अर्पित नहीं कर सकता, क्योंकि यह पहले ही जगन्नाथ का भोग है।”
बालक फिर मुस्कराया और बोला,
“पर यह प्रसाद आपके ईष्ट ने ही तो भेजा है।”
तुलसीदास ने कुछ कठोरता से कहा,
“नहीं बालक, मेरा ईष्ट बिना हाथों वाला नहीं हो सकता। यह मूर्ति मेरे आराध्य श्रीराम का रूप नहीं है।”
बालक का रहस्योद्घाटन
बालक ने तुलसीदास की आँखों में गहराई से देखा और शांत स्वर में बोला,
“गुरुदेव, आपने स्वयं अपने ग्रंथ श्रीरामचरितमानस में मेरे इसी रूप का वर्णन किया है — क्या भूल गए?”
और फिर उसने तुलसीदास की ही रचना से पंक्तियाँ उद्धृत कीं:
‘बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।’
इन पंक्तियों का अर्थ सुनते ही तुलसीदास स्तब्ध रह गए। उनके शरीर में कंपकंपी दौड़ गई। आँसुओं से भरी आँखों से उन्होंने बालक की ओर देखा — वह चेहरा अब सामान्य नहीं रहा था। उसमें दिव्यता झलक रही थी।
बालक ने कोमल स्वर में कहा,
“तुलसी, मैं ही राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान पहरा देते हैं, और विभीषण प्रतिदिन मेरे दर्शन के लिए आता है। कल प्रातः तुम भी आना — तुम्हें अपने ईष्ट के दर्शन होंगे।”
यह कहकर वह बालक धीरे-धीरे अदृश्य हो गया।
भक्त का विस्मय और भगवान की कृपा
तुलसीदास उस क्षण अवाक् रह गए। उन्हें लगा मानो उनकी आत्मा को सीधे भगवान ने स्पर्श किया हो।
उन्होंने थाली में रखा प्रसाद अत्यंत प्रेम और श्रद्धा से ग्रहण किया — यह जानते हुए कि यह प्रसाद स्वयं भगवान श्रीराम ने भेजा था।
रात भर वे अश्रुपूरित नेत्रों से वही विचारते रहे — “कैसे मैंने अपने प्रभु को पहचानने में भूल की?”
उनका हृदय कृतज्ञता और आनंद से भर उठा।
प्रातःकाल का अद्भुत दर्शन
अगले दिन प्रातः तुलसीदास बड़ी श्रद्धा और विनम्रता के साथ जगन्नाथ मंदिर पहुँचे।
जब उन्होंने गर्भगृह की ओर देखा — तो उनके नेत्रों ने जो दृश्य देखा, वह अवर्णनीय था।
वहाँ पर उन्हें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर स्वयं श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता के भव्य दर्शन हुए।
वे भाव-विभोर होकर भूमि पर गिर पड़े। उनके आँसू भूमि को पवित्र कर रहे थे।
उन्होंने मन ही मन कहा — “प्रभु! आपने मेरे हृदय की भावना को पहचान लिया। आपने मेरे अहंकार को तोड़ा और मुझे सच्चे दर्शन दिए।”
इस कथा का संदेश
यह कथा केवल तुलसीदास की भक्ति का प्रमाण नहीं, बल्कि ईश्वर की करुणा और सर्वव्यापकता का संदेश देती है।
ईश्वर किसी विशेष रूप, मूर्ति या नाम तक सीमित नहीं हैं — वे अपने भक्त के प्रेम और विश्वास के अनुसार रूप धारण करते हैं।
तुलसीदास ने सीखा कि सच्चा दर्शन आँखों से नहीं, बल्कि हृदय की भक्ति से होता है।
जगन्नाथ का वह “बिना हाथों वाला रूप” भी उसी राम का ही रूप था, जो अपने भक्त की भावनाओं को सर्वोपरि रखता है।
निष्कर्ष
तुलसीदास और जगन्नाथ भगवान की यह कथा इस बात का जीवंत उदाहरण है कि ईश्वर हमेशा भक्त के भाव से बंधे होते हैं।
जब भक्त सच्चे मन से पुकारता है, तो भगवान किसी न किसी रूप में अवश्य प्रकट होते हैं।
जैसे तुलसीदास को बालक रूप में भगवान राम के दर्शन हुए, वैसे ही हर सच्चा भक्त अपने जीवन में कभी न कभी भगवान की उपस्थिति अनुभव करता है।
इसलिए कहा गया है —
“भाव से बुलाओ तो पाषाण भी बोल उठते हैं,
और अहंकार से पुकारो तो भगवान भी मौन रह जाते हैं।”
जय श्रीराम 🙏🏻
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